आइए, समावेशिता को एक जीवन शैली बनाएँ

India’s 2020 education policy promotes inclusivity, but social stigma against disabilities remains challenging.

भारत की नई शिक्षा नीति 2020 यह सुनिश्चित करने के लिए समावेशिता को अनिवार्य बनाती है कि विशेष आवश्यकताओं वाले विद्यार्थियों को अपने साथियों के साथ सीखने के अवसर से वंचित न किया जाए। यह एक महत्वपूर्ण और सकारात्मक कदम है, लेकिन सामाजिक वास्तविकता इससे अलग है। विकलांग बच्चों को प्रतिदिन जिन गहरी जड़ों वाले पूर्वाग्रहों और सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ता है, उन्हें केवल नीतियाँ बनाकर समाप्त नहीं किया जा सकता।

समावेशी नीतियों के बावजूद, कई विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों को अब भी अन्य बच्चों और कभी-कभी बड़ों द्वारा “अलग” माना जाता है। स्कूलों में रैंप और संसाधन कक्ष हो सकते हैं, लेकिन बाहरी दुनिया में—चाहे बाजार हों, सिनेमा हॉल हों या खेल के मैदान—उचित सुविधाओं की भारी कमी है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वास्तविक बाधाएँ अक्सर अदृश्य होती हैं—साथियों का दृष्टिकोण, जागरूकता की कमी, और विविधता को सामान्य रूप में स्वीकार न कर पाना। कुछ स्थानों पर, इन बच्चों के लिए धमकाना (बुली करना) एक कठोर वास्तविकता बनी हुई है, क्योंकि उनके साथी—जिन्हें कभी यह सिखाया ही नहीं गया कि भिन्नताओं को अपनाना चाहिए—उन्हें उपेक्षा या उपहास का आसान लक्ष्य बना लेते हैं। यह निष्ठुर व्यवहार उस मानवीय स्वभाव से पूरी तरह परे है, जो प्रेम और स्वीकृति की चाह रखता है।

सच्ची समावेशिता के लिए केवल अवसंरचना में सुधार ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक सोच में भी आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक है। इसकी शुरुआत स्कूल स्तर पर संवेदनशीलता बढ़ाने वाले प्रयासों से होती है, जिससे बच्चे कम उम्र से ही यह समझ सकें कि भिन्नताएँ स्वाभाविक हैं और उनका सम्मान किया जाना चाहिए। शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे ऐसा समावेशी वातावरण बना सकें जहाँ विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों को केवल समायोजित ही नहीं, बल्कि वास्तव में विद्यालय जीवन में पूर्ण रूप से सम्मिलित किया जाए।

जब बच्चे घर पर विकलांगता को लेकर तिरस्कारपूर्ण या दयनीय टिप्पणियाँ सुनते हैं, तो वे इन पूर्वाग्रहों को आत्मसात कर लेते हैं और स्कूल में भी वही दृष्टिकोण अपनाते हैं। इसलिए, माता-पिता की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस हानिकारक पूर्वाग्रह चक्र को तोड़ने के लिए, विद्यालयों को छात्रों के साथ-साथ माता-पिता को भी जागरूकता अभियानों में सक्रिय रूप से शामिल करना चाहिए। समाज के हर सदस्य को अधिक उदार, संवेदनशील, सहानुभूतिपूर्ण और समायोजक बनने की आवश्यकता है।

नीतियाँ केवल ढाँचा तैयार करती हैं, लेकिन वास्तविक समावेशिता तो हमारे दैनिक कार्यों से निर्मित होती है। जब तक हम स्वीकृति को सक्रिय रूप से नहीं सिखाएँगे और सहानुभूति विकसित नहीं करेंगे, तब तक विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चे अपने ही कक्षा-कक्ष और सामाजिक परिवेश में बाहरी व्यक्ति बने रहेंगे। आइए, एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण करें जो समझे कि—”सच्ची समावेशिता केवल एक स्थान साझा करने के बारे में नहीं, बल्कि परस्पर सम्मान साझा करने के बारे में है।” आइए, समावेशिता को एक जीवन शैली बनाएँ।

Spread the News